Sunday, 6 December 2015

गंगा तट की स्मृतियाँ

अच्छी तरह से याद है मुझे गंगा किनारे की वो शाम जब हम दोनों दिन भर की बेमतलब की यात्रा से थके हुए बैठे थे.... तुम्हारे साथ वो व्यर्थ की यात्रा भी सुखदाई थी...

तुम भी भूले तो नहीं होगे... पर डर है मुझे... के मेरी तरह सोचते नहीं होगे तुम...

उसी दिन की ये एक तस्वीर है....



याद है? उस शाम को गंगा किनारे एक 'पागल' साधू अकेले ही व्यर्थ प्रवचन दे रहा था... हमारे सामने ये दृश्य था जिसे हम हल्की हल्की ठंड होने के बाद भी देर तक देखते रहे थे...?



अगले दिन सुबह जब हम फिर गंगा किनारे पहुंचे थे तो मै आदतन फिर से बच्चों की तरह पानी में पैर डाल कर बैठ गया और तुम हमारा सामान संभालने लगे...

अच्छा लगता है मुझे... थोड़ी देर के लिए ही सही, अपना बोझा किसी को संभालते देखना... पर मेरी नज़र बराबर तुम पर थी के कहीं तुमको मेरी सहायता की आवश्यकता न पड़े... (मेरे दृष्टिकोण से ली गई तुम्हारी वही तस्वीर साझा कर रहा हूँ).

माँ गंगा इन सभी बातों की साक्षी है....


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