एक बार जानवरों में नैतिकता जानने के लिए कुछ
शोधकर्ताओं ने एक प्रयोग किया. दो-दो करके कुछ बंदरों को अलग अलग पिंजरों में रखा
गया और उन्हें बारी बारी से कुछ साधारण काम करने के लिए दिए गए. हर काम के पूरा
होने पर पुरस्कार स्वरुप दोनों बंदरों को खाने के लिए कुछ दिया जाता. पर एक बंदर
को हर बार ककड़ी (एक साधारण चीज़) दी जाती जबकि दूसरे को हर बार अंगूर (बंदरों और
इंसानों के लिए एक स्वादिष्ट चीज़) दी जाती. दोनों बन्दर यह भली भांति देख सकते थे
कि दूसरे बन्दर को क्या दिया जा रहा है. 3-4 बार ठीक वही काम करने के लिए ककड़ी की
जगह अंगूर पाने वाले बंदर ने अगली बार अंगूर लेने से मना कर दिया (जबकि वह अभी भी
भूखा था और अंगूरों की सीमान्त उपयोगिता भी अभी काफी थी). वजह साफ़ थी... बंदर
सामाजिक प्राणी होने की वजह से अपने साथी के साथ हो रहे अन्याय को अधिक देर तक
नहीं सह सका. नैतिकता और न्याय की भावनाओं का बीज कुछ जानवरों में भी रहता है.
पर आज के परिदृश्य में मनुष्यों को देखकर मन
में संशय होता है कि क्या मनुष्यों के मन से इन भावनाओ का तिरोभाव हो गया है!
(नोट – इस post का सीधा संबंध JNU के राष्ट्र
के प्रति अकृतग्य देशद्रोहियों और आरक्षण की मांग करने वाले सभी समुदायों से है.)
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