एक
परिवार समाज के द्वारा फैलाए गए उन्माद में कितना अँधा और क्रूर हो सकता है इसका
उदाहरण रोहतक में घटी घटना से मिलता है. दो प्यार करने वालों को तड़पा तड़पा के
मारना वह भी उनमे से एक के परिवार के सदस्यों द्वारा! ऊपर से बिना किसी धार्मिक
वैधता के फैलाई गई कुरीतियों को धार्मिक और सामाजिक वैधता देने का दुस्साहस!
रोहतक
में घटी घटना से मेरे जैसे एक गे का रोम रोम सिहर उठता है जब वह यह देखता है कि
लोग जब एक स्त्री-पुरुष के मध्य के प्रेम के विषय में इतने असहिष्णु हो सकते है तो
वे स्त्री-स्त्री अथवा पुरुष-पुरुष के मध्य के प्रेम को कितनी घृणा से देखते
होंगे!
ईश्वर
न करे कि दो प्यार करने वाले ऐसे तालिबानी किस्म के लोगों के यहाँ जन्में! मन बार
बार न चाहते हुए भी ऐसे समाज में जन्मे गे लोगों के लिए पीड़ा का अनुभव करता है जो
जीवन भर एक तालिबानी सोच के चलते अपनी भावनाओं को मारते रहे है या मारते रहेंगें.
पर
क्या उन दो प्यार करने वालों का बलिदान व्यर्थ गया? क्या प्यार करने के लिए विभीत्स
मौत तक का खतरा उठाने वाले वे दो प्रेमी गे लोगों को थोड़ा भी साहस दे पाने में
विफल रहे? यही वे बाते है जिन पर अब विचार किया जाना चाहिए.
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