Friday, 6 September 2013

The Impossible


एक टीचर ने हम सब स्टूडेंट्स को प्रोत्साहित करने के लिए एक बार एक घटना सुनाई थी. घटना कुछ इस प्रकार थी कि कुछ वैज्ञानिकों के एक प्रयोग करने की सोची. उन्होंने कुछ सौ-पचास मक्खियों को एक ऐसे डिब्बे में बंद कर दिया जिसके मुंह पर एक शीशे का ढक्कन लगा हुआ था. मक्खियाँ अपने यहाँ वहां उड़ने की स्वाभाविक प्रवृति के कारण डिब्बे के मुंह पर लगे शीशे के ढक्कन को न देख कर उससे टकराने लगीं. वे डिब्बे के मुंह को खुला पाकर उसके पार निकल जाना चाहतीं थीं. कुछ एक घंटे बेकार कोशिश करने के बाद मक्खियों ने ऊपर उड़कर कांच के ढक्कन से टकराना बंद कर दिया. उन्हें यह विश्वास हो गया था कि ऊपर उड़कर डिब्बे से निकलने का कोई रास्ता नहीं है. पर आश्चर्य की बात तो तब हुई जब वैज्ञानिकों ने डिब्बे के मुंह से ढक्कन हटा दिया और तब भी एक भी मक्खी डिब्बे से बाहर नहीं निकली.

हमारे सर हमें यह बताना चाह रहे थे कि अगर कुछ एक असफल कोशिशों के बाद किसी काम को असंभव मानकर बैठ जाओगे तो उन मक्खियों की तरह ही उड़ने के लिए स्वतंत्र होने पर भी डिब्बे में कैद रह जाओगे.


कितनी सच बात है! कितने ही ऐसे गे लोग है जो एक जीवनसाथी पाने को या जीवनसाथी पाकर एक परिवार बसाने को या फिर अपने परिवार को अपनी सच्चाई के लिए मनाने को असंभव ही मानकर चलते है. और तो क्या कहें- कितने तो भारतीय समाज में एक गे व्यक्ति के जी पाने को ही असंभव मान लेते है. और इस “असंभव असंभव” चिल्लाते रहने का प्रभाव यह होता है कि वे उन मक्खियों की तरह ही समाज की बनाई उन ‘प्रथाओं या रुडियों’ के एक ऐसे डिब्बे में फंस कर रह जाते है जिससे सतत प्रयासों से निकला जा सकता है. पर प्रश्न यह है कि इतना परिश्रम कौन करे?

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