Monday, 25 February 2013

भारतीय संस्कृति विरोधी और अप्राकृतिक गेस

आज हिंदी में लिखा एक गे विरोधी लेख पड़ा जिसमे लेखक ने मूर्खता की सारी सीमाएँ लांघ रक्खी थीं। लेख में बताने जैसा तो कुछ भी नहीं था बस कुछ स्व-घोषित बुद्धिजीवियों एवं समाज के कुछ उच्च पदों पर आसीन लोगो की न मांगी गई एवं सच्चाई से कोसों दूर की राय ही थी। पर इस लेख की एक विशेष बात यह थी कि यह समाज की गेस के विषय में बनी हुई धारणा और इस धारणा के पीछे के 'देखते ही निरस्त करने लायक' कारणों का अच्छा प्रतिनिधित्व करता था। इसी कारण इसमें कुछ विशेष न होते हुए भी इसे पड़ कर कुछ लिखने का मन हुआ। 

सच ही तो है कि दो व्यक्तियों के बीच प्यार को न मानने और उसे समाज के लिए हानिकारक बताने के पीछे जो भी कारण क्यो न हो, वे मुर्खतापूर्ण ही लगेगें। अधिकांश व्यक्ति जो गे संबंधो का जी जान से विरोध करते है और उसे समाज के लिए हानिकारक मानते है असल में गे संबंधो के विषय में कुछ भी जानकारी नहीं रखते क्योंकि उनका 'homo-phobia' उन्हें गेस से सदा दूर रहने के लिए कहता रहता है। अँधेरे में कुछ न भी हो तो भी डर तो लगता ही है, यही अज्ञान का प्राकृतिक गुण है। इसी कारण ऐसे लोग जो स्व-विवक से सदा से वंचित होते है, अपने मन में गे लोगों को लेकर तरह तरह के डर पाल लेते है। पर असल में इनके पास गेस का विरोध करने लायक कुछ भी कारण नहीं होता (कारण का जायज या नाजायज होना तो दूर की बात है). गे विरोधी लोगो की जो दूसरी श्रेणी है वह अल्पज्ञानियों की है। ये अल्पज्ञानी दावा तो यह करते है कि ये भारतीय-संस्कृति और प्रकृति के नियम के बारे में बहुत अधिक जानकारी रखते है पर सच तो यह है कि इनमे से बहुतों का न तो संस्कृति से किसी प्रकार का लेना देना होता है और न ही इन्हें प्रकृति के नियमो का कुछ भान होता है। यही लोग वास्तव में गेस के सबसे बड़े शत्रु होते है क्योंकि अज्ञान से अधिक खतरनाक अधूरा ज्ञान और उसका दंभ होता है। ऐसे स्व-नियुक्त संस्कृति के ठेकेदार इस बात का दावा करते है कि समलैंगिकता पाश्चत्य सभ्यता की देन है और भारतीय संस्कृति के सर्वथा विरुद्ध है। कोई इन अल्प-ज्ञानियों से यह पूँछे कि आखिर भारतीय संस्कृति क्या इनके पुरखों की निजी जागीर है जिसका copyright इनको वसीयत में मिला है जिसके अनुसार भारतीय संस्कृति के विषय में ये जो भी कहेगे वह पत्थर की लकीर बन जायेगा? जहाँ तक मेरी समझ है, धर्म भारतीय संस्कृति का अविभाज्य अंग सदा से रहा है और किसी भी ऊल-जलूल तरह के 'फतवे' निकालने की प्रथा भी भारतीय संस्कृति में नहीं थी। जिस देश के सदग्रंथ शरीर के बजाये आत्मा पर बल देते आयें हो और साथ ही यह उद्घोषणा करते आये हो कि आत्मा का कोई लिंग नहीं होता है (नपुंसक लिंग भी नहीं), वहाँ अगर दो पुरूषों के सम्बन्ध पर बवाल मच जाये तो मैं तो इस बवाल को 'पाश्चत्य सभ्यता' की देन मानूँगा जहाँ के धर्म-प्रमुख ही धर्म की समलैगिकता विरोधी टीका करते आये हैं। भारतीय संस्कृति के ईश्वर को पाने के लिए एक विषम-लिंगी का साथ होना अनिवार्य शर्त नहीं है और न ही इसमें एक समलिंगी का साथ होना किसी विशेष प्रकार से बाधक है। जहाँ तक रोजमर्रा के जीवन से जुड़े और समाज से जुड़े आचरणों का प्रश्न है वहाँ भी दो पुरुष (अथवा दो स्त्रियों) के बीच का एक पवित्र प्रेम-सम्बन्ध कोई कठिनाई पैदा नहीं करता। भला अगर दो पुरुषों को साथ-साथ प्रेम-पूर्वक रहते देख कर किसी को कोई परेशानी होती है तो बेहतर है कि वह अपना इलाज करवाये। जीव-दया, परोपकार, सत्य, पवित्रता आदि गुण किसी विषम-लिंगी गृहस्थ के यहाँ ही आश्रय पायें ऐसा तो कोई नियम नहीं है। और अगर यही सब गुण किसी सम-लिंगी गृहस्थ (जी हाँ, दो पुरुष/दो स्त्रियाँ जिन्होंने परमात्मा को साक्षी मान कर जीवन भर हर स्तिथि में साथ रहने का प्रण ले लिया है, मेरे लिए गृहस्थ ही है) में पाए जाये तो क्या कारण है कि इस समलिंगी गृहस्थ को अन्य गृहस्थो से कम करके आँका जाये? क्या भारतीय संस्कृति का परमात्मा ऐसे गृहस्थों के द्वारा की गई पूजा-अर्चना स्वीकार नहीं करेगा? क्या वह इन गृहस्थों को किसी प्रकार का दंड देगा? भारतीय संस्कृति जहाँ मनुष्य-मात्र में ईश्वरीय गुणों के विकास से जुडी प्रक्रिया का समग्र रूप है वहाँ अगर कुछ मनुष्य ईश्वर के विपरीत जाकर गे स्त्री/पुरुषों का विरोध करें और वह भी 'भारतीय संस्कृति के नाम पर तो इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है? 

रही बात प्रकृति के नियमों के विरुद्ध जाने की, सो पहले ऐसा कहने वाले ही बताये कि प्रकृति का नियम है क्या? प्राकृतिक चुनाव की प्रक्रिया जिससे आज का मनुष्य अस्तित्व में आया है उसी प्रक्रिया ने ही 'गे' और 'स्ट्रैट' बनाने वाले जीनो का संरक्षण हमारी कोशिकाओं के DNA में आज तक किया हुआ है। तब ये प्राकृतिक नियमो का शोर मचाने वाले क्यों हडकंप मचाये हुए है? क्यों नहीं ये प्रकृति के सहज चुनाव की प्रक्रिया को अबाध गति से नहीं चलने देते? गे लोगो का सरोगेट-कोख से बच्चे पाना तो अभी हाल ही की घटना है तब कैसे किसी को 'गे' बनाने वाले जींस अब तक जिन्दा है, क्यों ये जींस एक गे के साथ ही दम नहीं तोड़ देते? इसके अतिरिक्त प्रकृति के विरुद्ध तो मनुष्य आज हर काम कर रहा है, आखिर कितने प्रकृतिक नियमो की दुहाई देने वाले 'होमोफोबिक डार्विन' हैं जो अपने एयर-कंडिशन्ड घर और दफ्तरों का मोह को छोड़ कर खुले आकाश के नीचे जीवन बिताना शुरू करेगे? इसलिए प्रकृति के नियमो की दुहाई न ही दी जाये तो अच्छा है अन्यथा गेस के द्वारा भी बहुत कुछ कहा जा सकता है जिसका प्रतुतर ये लोग नहीं दे पाएंगे। 

एक कडवी सच्चाई यह है कि हम जिस समाज के उन्नत होने का दंभ भरते है वह अपने कई सदस्यों को इतनी सी सभ्यता नहीं सिख पाया है है कि वे दूसरे मनुष्यों की अनुभूतियों को बिना उनकी परिस्तिथियों से गुजरे अनुभव कर सकें। प्रश्न यह है कि हम कब तक इतने निम्न स्तर पर पड़े रहेंगे कि एक अपने जैसे किसी व्यक्ति की प्यार-परिवार पाने की भूख के प्रति अनजान बने रहेंगे? कब तक हम अपने घमंड और पूर्वग्रहों से ग्रस्त होकर अन्य मनुष्यों की मूलभूत अवश्यकताओ की अनदेखी करेंगे? दूसरों को पीड़ा में देखकर उनसे सहानुभूति व्यक्त करने का जो गुण मनुष्य को मनुष्य बनाता है किन्ही अज्ञात कारणों से वह प्रतिदिन ह्रासमान है। यही कारण ही तो है जिसकी वजह से एक समय पशु-पक्षियों के प्रति भी दया का अनोखा भाव रखने वाला और उनका दर्द समझने वाला मनुष्य आज इतना असंवेदनशील हो गया है कि वह अपने साथी मनुष्यों के स्वयं के जैसे भावों को सिर्फ यह बहाना बनाकर समझने से इन्कार कर देता है कि वे भाव सिर्फ पुरुष और स्त्री के मध्य ही हो सकते हैं! क्या कारण है कि मनुष्य अपने अज्ञानतापूर्ण स्वार्थ में इतना अँधा हो गया है कि वह प्यार जैसी विस्तृत और परम स्वतंत्र चीज़ को स्वयं के कपोल कल्पित नियमो में बंधा देखना चाहता है? 

किसी को 'अल्पमति', 'अज्ञानी' और 'दम्भी' जैसे शब्दों से पुकारना मुझे प्रिय नहीं है, पर मनुष्य होने के कारण कुछ दोषों पर मेरा भी सहज अधिकार है, इसी कारण से गेस के प्रति की गई अनाप-शनाप बातें मुझे विचलित कर देतीं हैं। गेस को पाश्चात्य सभ्यता से प्रेरित बताने वालों को मैं यह बताना चाहूँगा कि मैं कैसे कैसे गे लोगो के संपर्क में आया हूँ। एक गे वह व्यक्ति भी था जो अपनी रूचि के बारे में सब कुछ जानने और उसे गलत न मानने पर भी - "माँ को किसी भी प्रकार की तकलीफ नहीं पहुँचनी चाहिए" - ऐसा कहकर एक लड़की से शादी कर लेता है और साथ ही साथ उसके प्रति सदा वफ़ादार रहने का प्राण भी करता है। एक गे वह भी है जो ईश्वर और उसके प्रेम पर अगाध आस्था होने के कारण किसी ऐसे स्ट्रैट की भी बुराई नहीं सुनना चाहता है जो गेस को गन्दी गन्दी गलियाँ देते है। एक गे वह भी है जो एक स्ट्रैट व्यक्ति के प्रेम में पड़कर और उसे कभी भी न पा सकने का पक्का अनुमान होने के बाद भी उसी के लिए जीना चाहता है। एक गे वह भी है जिसे शास्त्रों और दर्शन का 90% स्ट्रैट लोगो से अच्छा ज्ञान है। कितने ही गे वे हैं जो वकील, डॉक्टर, इंजिनियर, टाउन प्लानर, सिविल-सर्वेंट, मेनेजर और अन्य अच्छे प्रोफेशनस से सम्बंधित हैं। ये वही सब लोग है जिनका किसी न किसी कारण से आप सभी आदर करते पाए जाते है। तो क्या आप इनका आदर तभी तक करेंगे जब तक ये एक झूठा चेहरा लगाये आपके आस-पास रहे? अचानक इनके रुझान का पता चलते ही ये लोग आपके लिए 'घिनोने' कैसे हो जाते है? अगर आप ईश्वर को मानने वाले व्यक्ति है तो जरा सोचिये कि गेस से घ्रणा करके और उनके लिए परिस्तिथियों को प्रतिकूल बना कर आप किसी प्रकार का पाप तो नहीं कर रहे? 

1 comment: