Section 377 पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय (जिसका संविधान-संगत
होना संदिग्ध है), ने, उन
अनेको तथाकतिथ धर्म के रक्षकों और 'बुद्धिजीवियों' को फिर
से जुबान दे दी है जो अब तक इस विषय पर चुप थे. साथ ही साथ इस निर्णय ने उन कई
लोगों के काले पक्ष को भी उजागर किया है जिनको मेरे जैसे अनेकों लोग 'आदर्श' माने
बैठे थे. कष्ट तब होता है जब इन लोगों के तर्क इतने नीचे गिर जाते है कि सुनने
वाले को पता ही नहीं चलता कि ये
किसी पढ़े-लिखे सभ्य व्यक्ति के मुँह से आ रहे है कि एक निरे-अशिक्षित एवं अनभिज्ञ
मानवता द्रोही के मस्तिष्क से!
आज मैं बाबा
रामदेव सरीखों की बात नहीं कर रहा हूँ. वे तो अपनी cross-dressing के चलते 'कथनी और करनी' में भेद
होने के कारण पहले ही काफी बदनाम हो चुके हैं. और वैसे भी जब वे
मनुष्य के natural sexual behavior की बात करते है तो वैसा ही लगता है कि मानो
जिस व्यक्ति ने कभी स्कूल का मुँह भी न देखा हो वह एक कॉलेज के प्रोफेसर को उसका
विषय समझाए। वैसे अगर natural sexual behavior की बात करे भी तो -
बाबा कौन सा सही काम कर रहें है. बाबा के कहे अनुसार चलें तो फिर यह सवाल भी
उठता है कि अगर सभी लोग ब्र्ह्मचर्य का व्रत धारण कर लें तो सृष्टि आगे कैसे बढ़ेगी? [अगर
हिन्दू धर्म के दृष्टिकोण से मैं तर्क करूँ तो यह तो सृष्टि की रचना करने वाले की
चिंता का विषय है कि सृष्टि कैसे आगे बढ़े. सृष्टि के आदि में ब्रह्मा द्वारा
उत्पन्न ब्रह्मा के मानस पुत्र सृष्टि के विस्तार में
सहयोग करने के प्रति उदासीन थे. तो क्या वे भी इस तर्क के
अनुसार दोषी सिद्ध होते हैं? कम से
कम हिन्दू ग्रंथों का अध्यन करने पर ऐसा लगता।] और फिर स्वामी दयानंद के मत
में दीक्षित व्यक्ति कैसे सम्पूर्ण हिन्दू समाज का ठेकेदार बन सकता है? हो न हो
बाबा इसको लेकर कुछ हद तक शर्मिंदा भी हैं या फिर अनुयायियों कि संख्या बढ़ाने का
ऐसा लोभ सर पर सवार है कि जिस पंथ में बाबा स्वयं
दीक्षित है उसके मूर्तिपूजा विरोधी सिद्धांतों का ज़िक्र तक नहीं करते। खैर… !
पर मैं
तो राहुल ईश्वर सरीखे London School of Economics में पड़े लिखे लोगों की बात कर रहा हूँ
जिनसे कुछ हद तक समझदारी की अपेक्षा की जाती है. एक ओर LGBT community के
लोगों को अपना भाई कहना और दूसरी ओर यह कहना कि उनके व्यवहार को science ने natural होने की मान्यता
नहीं दी है! मेरे भाई आप अपने व्यवहार पर भी तो गौर करो. टीवी स्टूडिओं में बैठकर
लाइव दुनिया भर को अपनी बात सुनाना क्या प्राकृतिक है? और क्या
आप London पढ़ाई करने के लिए पैदल ही चल कर गए थे
और तैर कर समुद्र पार किया था? और हाँ ज़रूर आप आज भी जंगलों से लाए
कंद-मूल-फल पर ही जीवन निर्वाह कर रहे होंगे। "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" … लगता है
आप केवल गे लोगों से ही प्राकृतिक होने की अपेक्षा रखते है. और अगर आपका तर्क यह
है कि कुछ तथाकतिथ अप्राकृतिक व्यवहार अमान्य है जबकि
अन्य मान्य है.… तो कृप्या हमें मान्य और अमान्य
व्यवहारों में भेद करने का कोई सार्वभौमिक (Universal) सिद्धांत
बताएं। एक बात और... अगर आप एक बात को तभी स्वीकार करोगे यदि विज्ञान उसे पूरी तरह
परिभाषित कर सके और जान सके, तो फिर तो आप 'जीवन' (Life) तक को
नहीं स्वीकार कर पाएंगे क्योंकि अभी तक जीवन की कोई सर्वमान्य परिभाषा विज्ञानं ने
प्रस्तुत नहीं की है. कृपया अपने पूर्वाग्रहों को थोड़ा एक तरफ रखकर सोचने की कोशिश
करो. जिस तरह आपको हर गे विरोधी का कट्टरतावादी कहा जाना अच्छा नहीं लगता उसी तरह
मुझे भी हर गे समर्थक को 'Super-Liberal' कहा जाना अच्छा नहीं लगता।
पहले जब
कभी मैं देश की politics पर बात किया करता था तो मेरे विचारों
को जानकर मेरे अधिकाँश मित्र मुझे Hindutva
Centric Right Wing Mentality रखने वाला कहा करते थे. मुझे इस श्रेणी में रखे जाने का कोई अफसोस भी नहीं
था क्योंकि मैं समझता था कि चुभती हुई सच्ची बात कहने वालों को आजकल इसी नाम से
पुकारा जाता है. पर आज जब मैं इसी श्रेणी में रखे गए अन्य लोगो की
मानसिकता देखता हूँ तो इस श्रेणी का कहे जाने पर शर्म अनुभव करता हूँ. एक London निवासिनी लेखिका
महोदया जिनको मैं फेसबुक पर follow करता हूँ को गेस के विषय में चर्चा
एक ऐसे देश में नहीं सुहाती जंहाँ लोगों के घरों में शौचालयों तक का आभाव हो, जहाँ
औरतों पर अत्याचार होते हो, जहाँ भुखमरी हो और जहाँ
दिन रात बलात्कार हो रहे हों. अपने दामादजी के जन्मदिन की सूचनाएँ तक फेसबुक के
माध्यम प्रसारित करने वाली इन लेखिका जी के अनुसार मानो भारत
में किसी को तब-तक ख़ुशी की चाह रखने का कोई अधिकार नहीं है जब तक उपरोक्त समस्याएँ
समाप्त न हो जाएँ। अगर कोई इनके ध्यान में यह बात लाता भी
है कि इन गम्भीर समस्याओं पर विचार करने का मतलब नहीं है कि अन्य
समस्याओं पर विचार न किया जाए तो उस दुस्साहसी व्यक्ति के लिए इनका टका सा जवाब
तैयार है- "मैंने यह पोस्ट कोई तर्क कुतर्क और सुतर्क का
उत्तर देने के लिए नहीं किया है" साथ में एक मुफ्त सलाह भी - "जिन्हे
समलैंगिकों का संसर्ग करना अच्छा लगता हो वे शौक से करें". भई वाह! दोगलेपन
की भी हद है.
दोगलापन
तो कई ईसाई संस्थाओं का भी सामने आया है (पहले से ज्यादा निखरकर). ये अपने
करुणापूर्ण आचरण से बाध्य समलैंगिकों से नफरत तो नहीं कर सकते पर समलैंगिक आचरण को
पाप अवश्य कहेंगे। यह तो वही बात हुई कि आप कि कोई आपसे आपके घर कि तो तारीफ़ करे
पर घर में रहने वाले लोगों को गालियाँ दें. ठीक है भई.… जो
दुःसाहस करने से वर्त्तमान पोप फ्रांसिस पीछे हट जाते हों, ये लोग
अवश्य करेंगे (ज्ञात रहे पोप फ्रांसिस ने कहा
था कि अगर कोई गे ईश्वर को पाना चाहता है और प्रयत्न करता है तो उसे Judge करने
वाला मैं कोण होता हूँ)। फिर मीडिया में आने का अवसर भी तो रोज़-रोज़ नहीं मिलता!
इसी कारण लगे हाथ दुनिया को यह भी बताया जाए कि ईसाइयों में भी दलित होते है जिन
पर किसी का कोई ध्यान नहीं जाता। जी हाँ.… दुनियाँ भर की समस्याओं की ओर ध्यान
आकर्षित करने का एकमात्र सुअवसर यही तो है. [मुझे तो डर है कि कल को कोई यह न कह
दे कि जब तक संसार का निरस्त्रीकरण न हो जाए और विश्व-शांति स्थापित न हो जाए, किसी को
गेस के हित में बोलने का कोई अधिकार ही नहीं है.]
पर सबसे
अधिक कष्ट तो उस political party का रुख देखकर हुआ जिसका मैं खुला
समर्थक रहा हूँ. BJP के प्रवक्ताओं को सुप्रीम कोर्ट के
निर्णय में कुछ भी गलत नहीं लगा. ऐसा लगता है कि Section 377 के विषय
में BJP सरकार का proposal देखकर
ही मुँह खोलेगी। शर्मनाक.... !! अगर एक राष्ट्रीय पार्टी को मानव अधिकारों की बात
समझानी पड़े और वह सरकार के proposal को देखकर अपना रुख स्पष्ट करे तो इससे
बड़ी विचारधारा के दीवालियेपन की और
क्या बात होगी। खैर.… बाद में BJP इस बारे
में जो भी रुख अपनाए पर पार्टी और उसके प्रधानमंत्री पद के दावेदार श्री मोदी की शरूआती
चुप्पी बहुत कुछ कह गई है. साथ ही साथ मोदी से Twitter पर इस विषय में बोलने का आग्रह होते ही
(कई गैर-राजनैतिक लोगों की ओर से) जिस तरह तब तक इस विषय पर सोए हुए
खुंखार Right Wing लोगों को छोड़ दिया गया (जिन्होंने गे
लोगों के लिए ही नहीं वरन उनके समर्थकों के लिए भी 'ना-मर्द', 'हिजड़े' और भी न जाने किन-किन शब्दों का अपमानजनक
प्रयोग किया) वह भी काफी कुछ कह गया. हालाँकि एक साधारण से व्यक्ति, जिसकी
राजनीति में मात्र रूचि ही है और जो किसी प्रकार से किसी political पार्टी
या media से दूर-दूर तक नहीं
जुड़ा है, की कोई हैसियत तो नहीं है, पर वह इतना
जरूर कहेगा कि मोदी जी आपने अपने कई निष्काम समर्थक कम कर लिए हैं. आपकी कुछ न
कहने की मजबूरी को मैं समझ सकता था पर.… सिर्फ और सिर्फ आपके पक्ष में पोस्ट
करने वाली social media की जिन 'बड़ी हस्तियों' पर आपने
समर्थ होते हुए भी नकेल कसना उचित नहीं समझा उससे निश्चय ही मेरे जैसे आपके अनेकों
गैर-राजनैतिक समर्थकों की आँखें खुली हैं. (कल रात ही BJP अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने
BJP का रुख स्पष्ट करते हुए साफ़ कर दिया है कि BJP को सुप्रीम court के निर्णय पर
कोई आपत्ति नहीं है और पार्टी समलैगिकता का विरोध करती है. इसे सुनकर निश्चय ही
मेरे जैसे अनेकों गे भावी आम चुनावों में BJP को समर्थन देने पर पुनर्विचार
करेंगें. पर पार्टी का दीवालियापन स्पष्ट है. निश्चय ही अपनी लड़ाई हमें स्वयं ही
लड़नी पड़ेगी.)
इस देश
का जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मैं उन सभी समस्याओं (जिन्हे न केवल आप वरन मैं भी
महत्वपूर्ण और गम्भीर मानता हूँ) पर बात भी करना चाहता हूँ और उन्हें
सुलझाने में अपना छोटा ही सही पर मन से योगदान भी देना चाहता हूँ, पर क्या
मेरी समस्या पर बात करने के लिए आपको भी समय मिलेगा? आपमें से कुछ ने तो संसद द्वारा
अलग-अलग कानूनों को पारित करवाने का पूरा क्रम भी बता दिया है (पहले लोकपाल, फिर
महिला आरक्षण आदि)… उसमे मैं अपनी समस्या को सबसे नीचे
पाता हूँ. ऐसा नहीं कि मैं अपनी समस्या को इस सूची में ऊपर लाना चाहता हूँ पर कैसे
समझाऊं कि मैं भी (और मेरे जैसे कई और) सीमित आयु लेकर पैदा हुआ हूँ. और मेरे भी
आप सब की तरह ही कुछ सपने हैं और इन सपनों को मैं भी अपने जीवन में पूरा होते हुए
देखना चाहता हूँ. मैं आप सब को यह सिद्ध करके दिखाना चाहता हूँ कि एक गे व्यक्ति
अपने जीवन साथी के साथ रहते हुए उतना ही जिम्मेदार हो सकता है जितना कि आप अपने
परिवारों के साथ रहते हुए होते है. पर आप मुझे अपराधी घोषित करके मेरे से
(और मेरे जैसे कईयों से) ऐसा कर पाने का मौका छीन रहे है. कम से
कम मुझे अपने साथी के साथ एक घर बनाकर सम्मानपूर्वक जीने का मौका तो दें.… ऐसा
होने के उपरान्त एक दिन मेरे आमंत्रण पर मेरे घर यदि आप कभी
चाय पीने आते हैं तो निश्चय ही आपकी राय मेरे (और मेरे जैसे अनेकों) गे लोगों के
बारे में बदल जायेगी।
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