Omkarananda Saraswati of Parmatma Matha |
आज कुछ धार्मिक ‘गुरु’ Jamaat-e-Islami
Hind के द्वारा आयोजित एक कन्वेंशन में भाग लेने जा रहे हैं. कन्वेंशन का उद्देश्य
UPA सरकार द्वारा Supreme Court में Section 377 पर आए judgment के खिलाफ़ दी गई एक
Review Petition (पुनर्विचार याचिका) की
आलोचना करना और homosexuality के विरुद्ध आंदोलन करना है. इस कन्वेंशन में
इस्लामिक और ईसाई धर्म-गुरुओं का भाग लेना तो समझ आता है (Why? Read my other articles) पर यह जानकर न केवल
हैरानी हुई बल्कि शर्मिंदगी का भी अनुभव हुआ जब पता चला कि की प्रयाग पीठाधीश्वर
‘शंकराचार्य’ ओंकारानंद सरस्वती भी इस कन्वेंशन में भाग ले रहे है. हैरानी और
शर्मिन्दगी का कारण था कि मैं समझ नहीं पा रहा था कि कैसे आदि जगद्गुरु शंकराचार्य
जी की परंपरा में दीक्षित कोई व्यक्ति इस तरह के अनर्गल सम्मेलन में भाग ले सकता
है. तभी विचार आया कि यह कौन सी पीठ है जिसे आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने स्थापित
किया था. खोजने में ज्यादा देर नहीं लगी कि आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने प्रयाग में
कोई पीठ स्थापित ही नहीं की थी. यह तो कोई ‘परमात्मा मठ प्रयाग पीठ’ का संभवतया
स्वघोषित शंकराचार्य है जिसे आदि जगद्गुरु की शिक्षा आदि के विषय में न तो कुछ
जानकारी है और न ही रूचि. (इस मठ की मुख्य रूचि इसकी website के पहले पेज से ही
पता चल जाती है जिस पर donation आदि के लिए इनके बैंक अकाउंट का पूरा
अता-पता लिखा है). कोई भी व्यक्ति जो थोड़ी
बहुत भी आदि जगद्गुरु शंकराचार्य की शिक्षाओं से परिचित है और उनके द्वारा
प्रतिपादित अद्वैत मत के बारे में जानता है, वह ऐसे लोगों का आदि जगद्गुरु
शंकराचार्य और सनातन धर्म से कोई वास्ता मानने पर राजी नहीं होगा.
जो लोग आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के
विषय में नहीं जानते उनकी जानकारी के लिए बता दूँ कि आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने
वेदांत के अद्वैत मत का प्रतिपादन किया था जिसके अनुसार यह सब (अर्थात संसार)
ब्रह्म (अर्थात निराकार ईश्वर) के अलावा कुछ नहीं है. विविध नाम रूप वाला संसार
हमारे भ्रम का परिणाम है. संसार (यानि द्वैत की) की सत्ता उसी प्रकार है जैसे
रस्सी में सांप का भ्रम हो जाता है. (ब्रह्म से भिन्न दूसरा कुछ भी नहीं है, और
अगर दूसरा कुछ दीख पड़ता है तो वह उसी प्रकार का भ्रम है जैसे रस्सी में सांप का
भ्रम हो जात है.) जैसे स्वर्ण के बने विभिन्न आभूषण अलग अलग दीख पड़ते है पर
बुद्धिमान पुरुष जानता है कि यह सब स्वर्ण ही है. आकर (यानि नाम रूप की भिन्नता)
नाशवान है, अतःएव मिथ्या है और स्वर्ण तत्व (यानि ब्रह्म) शाश्वत है, अतःएव सत्य
है.
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के उपरोक्त सिद्धांत को वास्तविक रूप से जानने
वाला कौन सा व्यक्ति संसार में भेद देख सकता है. इस सिद्धांत को जानने वाला कौन सा
व्यक्ति homosexuality को गलत और heterosexuality को सही बता सकता है? और क्या ऐसा
कहने वाला उपनिषदों के उस सिद्धांत को भूल जाता है जहाँ कहा गया है कि परमात्मा को
भूल संसार को देखने वाला व्यक्ति मृत्यु के द्वारा मृत्यु को प्राप्त होता रहता
है?
इस विषय में शंकराचार्य के जीवन की एक कथा भी उल्लेखनीय है जहाँ वे स्नान
करके लौटते समय एक चाण्डाल से बचकर निकल रहे थे. उनको ऐसा करते देख चाण्डाल ने
व्यंग करते हुए कहा कि “मुझे तो लगता था कि तुम सब में केवल ब्रह्म को ही देखते
हो, पर तुम तो किसी को चाण्डाल, किसी को ब्राह्मण, किसी को मनुष्य और किसी को पशु
देखते हो!” इतना सुनना था कि शंकराचार्य ने वहीँ उस चाण्डाल को दंडवत प्रणाम किया
और अपने ज्ञान-चक्षु खोलने के लिए धन्यवाद दिया.
क्या शंकराचार्य के तथाकतिथ अनुयायी और उनके नाम का अपने नाम के आगे प्रयोग
करने वाले ‘महान पुरुष’ इतनी साधारण सी बात नहीं समझ सकते कि किसी को homosexual
और किसी को heterosexual देखना भी उनकी द्वैत दृष्टि का परिणाम है? स्वयं द्वैत
देखते हुए वे कैसे वैदिक संस्कृति की रक्षा कर सकते है? Charity begins at home! पहले अपने आप से
संस्कृति की रक्षा करें. तब homosexuals को अपना निशाना बनाएं.
P.S.
क्या भारतीय संस्कृति की रक्षा करने
वाले इन महापुरुष ‘शंकराचार्य’ ओंकारानंद सरस्वती को गो-मांस खाने वालों के साथ
मंच साझा करते हुए जरा भी शर्म नहीं आएगी?
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