कल ही एक Facebook Friend ने मुझ से शिकायत भरे अंदाज़ में कहा कि तुम सोचते बहुत हो। मैं भी ऐसा ही मानता हूँ कि मैं छोटी छोटी बातों अपने मन से कुछ ज्यादा ही लगा लेता हूँ। पर क्या करूँ सोचना मेरे लिए बहुत ही 'natural' हैं। चाह कर भी इसे इतनी आसानी से छोड़ नहीं सकता।
शनिवार सुबह ऑफिस जाते हुए metro train में भीड़ अक्सर कम ही मिलती है। वैसा ही आज भी हुआ। ट्रेन में घुसते ही मैं एक तरफ जा कर खड़ा हो गया। सामने ही एक सीट पर 30-34 साल आयु वाला एक व्यक्ति अपने तीन-साड़े तीन साल के बच्चे के साथ बैठा हुआ था। मैंने कोई ध्यान नहीं दिया। दिमाग में यही सब चल रहा था कि ऑफिस पहुँचकर क्या क्या काम करने है। लग रहा था कि आज की यात्रा सुखद रहेगी। पर ईश्वर को यह कहाँ स्वीकार था! एक मिनट भी नहीं हुआ था कि उस बच्चे ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचना शुरू कर दिया। "मम्मी के पास जाना है, मम्मी के पास जाना है।" अपनी प्यारी सी तीखी आवाज में यही रट लगानी शुरू कर दी। लगभग तीन साल के बच्चे के लिए ऐसी ज़िद करना कोई अजीब बात नहीं थी। बच्चे का पिता उसे शांत रखने के लिए तरह तरह से उसका ध्यान बंटाने के कोशिश कर रहा था पर अभी बच्चों को सँभालने का अधिक अनुभव न होने के कारण लगभग असफल था। उसकी बातों से ऐसा लग रहा था कि बच्चे की माँ भीड़ के डर से Ladies' Coach में सफ़र कर रही थी और बच्चे को उसके पिता को सँभालने के लिए दे दिया था। पर पिता के लाख प्रयासों के बावजूद बच्चा कहाँ मानने वाला था। अब वह अपनी मम्मी के पास जाने की रट लगाने के साथ साथ हाथ पैर भी फैकने लगा। ऐसा करते हुए वह गोरा-चिट्टे रंग और भूरे बालों वाला बच्चा जिसकी शक्ल से ही उसके शैतान होने का पता चलता था, मेरे मन को कितना भा रहा था मैं बता नहीं सकता। इसी सब के बीच interchange station आ गया जहाँ से मुझे दूसरी मेट्रो पकडनी थी।
इस बार मुझे ट्रेन में घुसते ही बैठने के लिए सीट मिल गई। कानो में earphone लगाए अपनी आदत के अनुसार ग़ज़ल सुनते हुए भी मैं उसी बच्चे के बारे में ही सोच रहा था। साथ ही साथ मैं उसके पिता के भाग्य से ईर्ष्या भी कर रहा था। असल में वह बच्चा मानो मेरे मन में कल्पित अपने खुद के बच्चे की ही carbon copy था। "पता नहीं और कब तक इसी तरह लोगो को उनके बच्चों के साथ देख देख कर मुझे रोना पड़ेगा?" अपने जीवन की वास्तविक सच्चाई जिसमे एक बच्चे का सुख पाने की निकट भविष्य में कोई संभावना नहीं है याद करके मैंने खुद से और ईश्वर से यह प्रश्न किया। कोई जवाब न मिलने पर सोच और अधिक गहराई में उतर गई। "क्या Gays के भाग्य में केवल और केवल हर उस बात के लिए रोना और संघर्ष करना लिखा है जिसे बाकी लोग बिना प्रयास किये पा जाते है?" मैं मन ही मन रोते हुए सोच रहा था। पर ईश्वर को शायद मुझे एक गे होने का और भी दण्ड देना था इसीलिए मेरे सामने की सीट पर एक ही परिवार की तीन स्त्रियाँ और एक पुरुष जिनके साथ 3-4 साल के दो बच्चे थे, आकर बैठ गए। देखने में कम पड़े लिखे और कम अमीर होने होने के बावजूद उनके दोनों बच्चो की शरारतों से उनके चेहरे के भावों को देखकर मुझे वे खुद से कहीं अधिक सुखी और अमीर लग रहे थे। मेरे दाई ओर एक औरत अपने 5 साल के बच्चे के साथ बैठी थी जिसने अपना सर माँ की गोद में छुपाया हुआ था। मेरे बाई ओर एक अन्य पिता अपने 3 साल के बच्चे जो अपने एक हाथ की बीच वाली दो उँगलियों को मुँह में लिए चूसता हुआ बहुत ही प्यारा लग रहा था, के साथ खड़ा था। कुल मिला कर ईश्वर ने मुझे घेरने की पूरी व्यवस्था कर रक्खी थी। किसी प्रकार आँसू आँखों से बाहर न निकलें मैं बस इसी प्रयास में लगा यह सब झेल रहा था।
"कितने ही ऐसे लोग है जिन्होंने कभी भी actively बच्चों के बारे में सोचा तक नहीं, पर आज खुद के बच्चों के साथ खेल रहे है और दूसरी ओर कितने ही ऐसे सच्चे गे लोग है जो रात दिन एक बच्चा पाने के लिए तड़पते है पर क़ानून और सामाजिक दोगलेपन की वजह से इस सपने को साकार नहीं कर पाते। ऐसी भ्रष्ट सरकार जो केवल वोट बैंक के लिए ही कुछ करने का कष्ट करती हो, से किसी प्रकार की उम्मीद बेकार है क्योंकि Gays भारत में अभी तक एक वोट बैंक के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं कर पाए हैं। रही बात समाज की, तो ऐसे समाज से भी क्या आशा की जा सकती है जो अभी कल तक औरतों तक को एक भोगी जाने वाली वस्तु के रूप में देखता आया है। ऐसे समाज को gays हमेशा हंसी और घृणा के ही पात्र लगेगें, उसे कहाँ गे लोगो के दुःख दर्द से सरोकार है? पर ईश्वर ... ? ईश्वर को भी तरस नहीं आता क्या? क्या उसने एक सच्चे गे के भाग्य में केवल लड़ना भर ही लिखा है? पहले तो यह समझने के लिए कि उसका किसी पुरुष को चाहना गलत नहीं है वह खुद से लड़े। एक बार जब यह समझ आ जाये कि वह एक लड़की का जीवन ख़राब नहीं कर सकता तो एक जीवनसाथी ढूँढने के लिए लड़े। एक सच्चा जीवन साथी मिल जाये तो परिवार और समाज को अपनी पसंद समझाने के लिए लड़े। और इस सब के बाद अपने परिवार को पूरा करने के हेतु एक बच्चा पाने के लिए संघर्ष करे....!!"
यही सब सोचता हुआ जा रहा था कि अचानक एक ग़ज़ल के कुछ बोलों पर मेरा ध्यान गया- "अगर आसानियाँ हों जिंदगी बेकार हो जाए।" ऐसा लगा जैसे ईश्वर ने ही मेरे प्रश्न का जवाब दिया हो। और वो भी ऐसा कि मैं निरुत्तर हो गया। मेरे मन ही मन चलने वाली बहस में अक्सर ईश्वर ही विजयी रहता है, इस बार भी वही रहा। देखा तो -मैं एक मेट्रो स्टेशन आगे आ चुका था। हड़बड़ा कर अपनी सीट से उठा और मेट्रो से बहर आया। वापिस जाने के लिए मेट्रो ले ही रहा था कि अगली ग़ज़ल के बोल बज पड़े -
"कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन,
जब तक उलझे न काँटों से दामन...." और प्रकृति के बनाए इस नियम पर मैं आँखे गीली होते हुए भी हँस पड़ा।
~Prove That Gays Can Love Too.
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