जब भी कोई 50-60 साल के अंकल भीड़-भाड़ भरी मेट्रो ट्रेन या बसों में मौके का फायदा उठाते मिलते है तो एक बात अक्सर मन में आती है: अगर आज के कई युवा लड़के और लड़कियों का गे होना अगर उनके द्वारा किये जाने वाले पाश्चात्य सभ्यता के अंधे अनुसरण का नतीजा है तो इस उम्र के लोग कैसे 'गे-प्रवृति' के 'शिकार' हो गए.
ऐसी बात नहीं है कि इन लोगो ने अभी हाल ही में अपनी 'रूचि' बदली हो. अगर आपको अपने से उम्र में काफी बड़े लोगो से मुक्त रूप से मित्रवत बातें करने के मौका मिलता हो तो कभी उनसे पूंछिये कि क्या उन्हें अपने समय के किसी पुरुष के किसी दूसरे पुरुष के प्रति आकर्षण का किस्सा याद नहीं है? निश्चय ही वे आज से 30-40 साल पहले के छुपे हुए किसी गे सम्बन्ध का उदाहरण अवश्य दे देंगें। वह भी किसी ऐसे गाँव-कसबे का जहाँ पश्चिमीकरण की हवा अभी तक स्वछंदता से बहनी शुरू नहीं हुई है.
असल में भारत में किसी भी कठिन प्रश्न का उत्तर जब देते न बने तो उसका दोष विदेशी शक्तियों पर मड देने की प्रथा चल निकली है. यही हल लोगो ने गेस के न्यायसंगत प्रश्नों के लिए भी निकाला है. सच्ची भारतीय संस्कृति से अनभिग्य ये लोग यह नहीं जानते कि असल में यह एक पश्चिमी विदेशी धर्म (ईसाई) का ही सिद्धांत है कि किसी के गे होने का मतलब है "ईश्वर से विमुख होकर शैतान के कब्ज़े में होना". यह भी एक विदेशी धर्म (इस्लाम) ही है जिसमे गे लोगो के साथ किये जाने वाले व्यवहार के विषय में मतभेद केवल इतना ही है कि उन्हें किस प्रकार मौत की सज़ा दी जाए (पत्थरों से मारकर या ऊँचाई से गिरा कर). अतः गे लोगों पर पश्चिमी अनुसरण का आरोप लगाने वाले पहले अपना सामान्य ज्ञान दुरुस्त करें तो अच्छा होगा।
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